वह दरो- दीवार नहीं, तेरे घर की, ऊंची छत भी नहीं वो, बालकनी और रोशनदान भी नहीं, कि जब चाहे तू इन्हें हटा कर नयी बनवा लें,
वह तो तेरे घर का, तेरे जीवन का आँगन है।
जिसे ना तुम हटा सकते हो, ना मिटा सकते हो, जिस प्रकार आँगन तुम्हारे घर के हर सामान का बोझ उठाता है तुम्हारे घर की दीवारों का बोझ उठाता है सिर पर छत का साया भी आँगन ही करता है, उसी प्रकार तुम्हारे जीवन की जीवन संगिनी तुम्हारे घर का आँगन है तुम्हारे परिवार का आँगन है। आँगन होते हुए भी उसका कुछ भी नहीं है।वो थोड़ी सी से अपने कर्तव्यों से क्या दूर हुई ,पराया उसे कह देते हो दहलीज के बाहर का रास्ता दिखा देते हो। मेहंदी, महावर, बिंदिया, पायल, बिछिया, कंगना, सजे है उसके शरीर पर, पर सब है तुम्हारे ही नाम के।
वंश की बेल उसके गर्भ में पलकर आती है पर नाम तुम्हारा ही है। परिवार तुम्हारा है मित्र तुम्हारे हैं फिर भी तुमसे ज्यादा ध्यान उनका रखना, शौक उनके जरूरतें उनकी जानना जिम्मेदारी उसी की है, वह तुम्हारे परिवार के सदस्यों के मौन के पीछे के शब्दों को भी पढ़ लेती है, वह तुम्हारे परिवार की नजरों को ढूंढते हुए सामानों को भी हाथों में लाकर थमा देती है, पर तुम तो उसके शौर को भी ना पढ़ पाते हो ना तुम उसकी पीड़ा पढ़ पाते हो, ना सी उसका दर्द समझ पाते हो, उसका दर्द तुम्हें एक नाटक सा लगता है उसकी पीड़ा तुम्हें काम ना करने का बहाना सा लगता है। तुम्हारे रीति-रिवाजों के नाम पर दस्तूर में न जाने कितनी साड़ियाँ वह बक्से में से निकाल कर तुम्हें दे देती है, पर शायद वार -त्यौहार तुम एक साड़ी दिलाने पर भी चिड़ जाते हो ।
जिस घर को सजाने -संवारने मे तुमसे जेब थोड़ी खाली करवाती हैं तो तुम गुस्सा बेहद कर जाते हो। उस घर में मेहमान तुम्हारे ज्यादा आते हैं ,उस घर में प्रतिष्ठा तुम्हारे ज्यादा बनती है, उसके पीहर से तो जब भी कोई रिती- रिवाज के नाम पर आता है, एक चाय के बदले दस्तूर में बहुत कुछ तुम्हें और तुम्हारे परिवार को थमा जाता है।
तुम थोड़ा सा सर्दी-जुकाम से क्या सुस्त हुये वो रसोई से 100 दवाइयाँ तुम्हारे लिए बना लाती है,कभी गर्म कढ़ी तो,कभी गर्म सूप बना लाती है, तुलसी के पत्तों के साथ अदरक शहद का काढा भी बना लाती हैं साथ मे मंदिर में दुआओं का दीपक भी जलाती है।
पर तुम तो एक विक्स की डिब्बी भी जरूरत पड़ने पर देने से कतराते हो,
वह तुम्हारे घर की बेडशीट को चादर से गाड़ी पौछने तक का सफ़र तय कराती। और तुम खर्च के हिसाब मे शक की नजरों से उसे घूरते हो,वो तुम्हारे परिवार को चलाती है.. तो वह धोबिन भी बनती है वो हरिजन भी बनती है, वो शूद्र भी बनती है तो वो रसोईया भी बनती है, वो तुम्हारे घर की सलामती के लिए मंदिर में पूजा कर पुजारिन भी बनती है वो भूल जाती है कि वह भी चुलबुली एक लड़की है, वह भूल जाती है ,उसके भी कुछ सहेलियां हैं, वह भूल जाती है उसकी भी कुछ फरमाइशे हैं, वो भूल जाती है उसके भी कुछ सपने है । वो तुम्हारे परिवार की हर फरमाइशे पूरी करती है, हर किसी के शौक का पसंद का खाना झटपट बना देती है।माना कि तुम कमाते हो और तुम्हारी इस कम-कमाई में भी व्यवस्थित रूप से पूरा घर चला देती है, वह झूठ भी बोलती है, महीने के अंत में नहीं बचे हैं पैसे, परंतु बुरे वक्त में तुम्हारा बैंक भी वह बन जाती है। बहने जब तुम्हारे घर आती है घंटों तुम से बतियाती है पर" तुम कैसी हो यह भाभी से पूछना भी भूल जाती हैं। तुम्हारे परिवार में वो तुम्हारी हमदम ही नहीं, साया बनकर साथ तुम्हारे चलने को आयी है, हर दुख-सुख में ढाल बनकर यूं ही खड़ी रहेगी,
तुम उस एक को निभा लो, कुछ उसके मन को भी पढ़ लो, कुछ उसको भी थोड़ा जान लो, तुम इस एक रिश्ते को थोड़ा मान-सम्मान दे दो, उसकी खुली आँखों के पीछे आँसुओं को थोड़ा थाम लो, उसके होठों के पीछे की चिड़चिड़ाहट को थोड़ा पहचान लो, उसके दर्द के रिश्तों को थोड़ा थाम लो। माना वो परायी है पर फिर भी आँगन में तुम्हारे साथ तुम्हारे ही हाथ थामे आयी है ।
वह तुम्हारे घर को अपना बनाती है। आँगन में तुम्हारे रंगोली सजाती है, दुआ के दीपक भी मंदिर में जलाती है फिर क्यों नहीं तुम एक को ही संभाल लो, जो तुम्हारे *अनगिनत रिश्तो* को संभालती है, वह तुम्हारे घर में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देती है फिर भी कुछ मान सम्मान ना उसे मिल पाया है।
तुम उसके पीहर में जब भी जाते हो खूब आवभगत के साथ भी चार दिन ना रह पाते हो, सोच कर देखो थोड़ा सा इतना विशाल ह्रदय वह कहाँ से लायी है वह पराई है, फिर भी तेरे घर के आँगन मे बंध कर तुझ में समायी है।
वह पत्नी नहीं, वह स्त्री नहीं,
वह तो तेरे घर का आँगन बन तेरी दुनियाँ मे समायी है
शकुन्तला टेलर ✍️
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